॥ दोहा ॥
कनक बदन कुण्डल मकर,मुक्ता माला अङ्ग।
पद्मासन स्थित ध्याइए,शंख चक्र के सङ्ग॥
॥ चौपाई ॥
जय सविता जय जयति दिवाकर!।सहस्रांशु! सप्ताश्व तिमिरहर॥
भानु! पतंग! मरीची! भास्कर!।सविता हंस! सुनूर विभाकर॥
विवस्वान! आदित्य! विकर्तन।मार्तण्ड हरिरूप विरोचन
अम्बरमणि! खग! रवि कहलाते।वेद हिरण्यगर्भ कह गाते
सहस्रांशु प्रद्योतन, कहिकहि।मुनिगन होत प्रसन्न मोदलहि
अरुण सदृश सारथी मनोहर।हांकत हय साता चढ़ि रथ पर
मंडल की महिमा अति न्यारी।तेज रूप केरी बलिहारी॥
उच्चैःश्रवा सदृश हय जोते।देखि पुरन्दर लज्जित होते॥
मित्र मरीचि भानु अरुण भास्कर।सविता सूर्य अर्क खग कलिकर॥
पूषा रवि आदित्य नाम लै।हिरण्यगर्भाय नमः कहिकै॥
द्वादस नाम प्रेम सों गावैं।मस्तक बारह बार नवावैं
चार पदारथ जन सो पावै।दुःख दारिद्र अघ पुंज नसावै॥
नमस्कार को चमत्कार यह।विधि हरिहर को कृपासार यह॥
सेवै भानु तुमहिं मन लाई।अष्टसिद्धि नवनिधि तेहिं पाई॥
बारह नाम उच्चारन करते।सहस जनम के पातक टरते॥
उपाख्यान जो करते तवजन।रिपु सों जमलहते सोतेहि छन॥
धन सुत जुत परिवार बढ़तु है।प्रबल मोह को फंद कटतु है॥
अर्क शीश को रक्षा करते।रवि ललाट पर नित्य बिहरते॥
सूर्य नेत्र पर नित्य विराजत।कर्ण देस पर दिनकर छाजत॥
भानु नासिका वासकरहुनित।भास्कर करत सदा मुखको हित॥
ओंठ रहैं पर्जन्य हमारे।रसना बीच तीक्ष्ण बस प्यारे॥
कंठ सुवर्ण रेत की शोभा।तिग्म तेजसः कांधे लोभा॥
पूषां बाहू मित्र पीठहिं पर।त्वष्टा वरुण रहत सुउष्णकर॥
युगल हाथ पर रक्षा कारन।भानुमान उरसर्म सुउदरचन॥
बसत नाभि आदित्य मनोहर।कटिमंह, रहत मन मुदभर॥
जंघा गोपति सविता बासा।गुप्त दिवाकर करत हुलासा॥
विवस्वान पद की रखवारी।बाहर बसते नित तम हारी॥
सहस्रांशु सर्वांग सम्हारै।रक्षा कवच विचित्र विचारे॥
अस जोजन अपने मन माहीं।भय जगबीच करहुं तेहि नाहीं॥
दद्रु कुष्ठ तेहिं कबहु न व्यापै।जोजन याको मन मंह जापै॥
अंधकार जग का जो हरता।नव प्रकाश से आनन्द भरता॥
ग्रह गन ग्रसि न मिटावत जाही।कोटि बार मैं प्रनवौं ताही॥
मंद सदृश सुत जग में जाके।धर्मराज सम अद्भुत बांके॥
धन्य-धन्य तुम दिनमनि देवा।किया करत सुरमुनि नर सेवा॥
भक्ति भावयुत पूर्ण नियम सों।दूर हटतसो भवके भ्रम सों॥
परम धन्य सों नर तनधारी।हैं प्रसन्न जेहि पर तम हारी॥
अरुण माघ महं सूर्य फाल्गुन।मधु वेदांग नाम रवि उदयन॥
भानु उदय बैसाख गिनावै।ज्येष्ठ इन्द्र आषाढ़ रवि गावै॥
यम भादों आश्विन हिमरेता।कातिक होत दिवाकर नेता॥
अगहन भिन्न विष्णु हैं पूसहिं।पुरुष नाम रवि हैं मलमासहिं॥
॥ दोहा ॥
भानु चालीसा प्रेम युत,गावहिं जे नर नित्य।
सुख सम्पत्ति लहि बिबिध,होंहिं सदा कृतकृत्य॥ || इति संपूर्णंम् ||
Surya Dev Chalisa Meaning
श्री सूर्य चालीसा भगवान सूर्य को समर्पित एक भक्ति गीत है, जिसमें 40 छंद होते हैं। यह गीत भगवान सूर्य की महिमा, गुणों और भक्तों को उनके आशीर्वाद की प्रार्थना का वर्णन करता है। यहाँ श्री सूर्य चालीसा का सारांश प्रस्तुत है:
सूर्य चालीसा का संक्षिप्त अर्थ
प्रस्तावना:
भगवान सूर्य की महिमा का गुणगान करते हुए, भक्त उनसे जीवन की समस्याओं और विपत्तियों से मुक्ति की प्रार्थना करते हैं। भगवान सूर्य के गुण:
भगवान सूर्य को तेज और ऊर्जा का स्रोत माना गया है। उनकी कृपा से व्यक्ति को स्वास्थ्य, सम्मान और सफलता प्राप्त होती है। कृपा और आशीर्वाद:
भगवान सूर्य की कृपा से जीवन के सभी संकट, अज्ञान और अंधकार दूर होते हैं। उनके आशीर्वाद से भक्तों को सुख, शांति, और समृद्धि प्राप्त होती है। भक्तों की प्रार्थना:
भक्त भगवान सूर्य से प्रार्थना करते हैं कि वे उनकी बुद्धि को तीव्र करें, ज्ञान का प्रकाश फैलाएं और विद्या के क्षेत्र में उन्नति प्रदान करें। उनकी कृपा से विद्यार्थी शिक्षा में सफल होते हैं और जीवन में उन्नति करते हैं।
श्री सूर्य चालीसा के लाभ
संकट नाशक: श्री सूर्य चालीसा का नियमित पाठ जीवन के सभी संकटों और विपत्तियों को दूर करता है।
मानसिक शांति: भगवान सूर्य की भक्ति से मानसिक शांति और संतोष प्राप्त होता है।
आध्यात्मिक उन्नति: नियमित पाठ से आध्यात्मिक उन्नति होती है और भगवान सूर्य के प्रति भक्ति और समर्पण बढ़ता है।
कष्टों का नाश: भगवान सूर्य की कृपा से सभी प्रकार की विपत्तियाँ और कष्ट दूर होते हैं।
सुख-शांति: श्री सूर्य चालीसा का पाठ करने से जीवन में सुख-शांति और समृद्धि आती है।
श्री सूर्य चालीसा का पाठ करने से भक्तों को भगवान सूर्य की कृपा प्राप्त होती है, जो जीवन में सुख, शांति, और समृद्धि लाती है। यह भक्तों को मानसिक शांति, संतोष और आध्यात्मिक उन्नति प्रदान करता है।